उधड़ा हुआ स्वेटर
सुधा अरोड़ा
(1)
यों तो उस पार्क को लवर्स पार्क कहा जाता था पर उसमें टहलने वाले ज्यादातर लोगों की गिनती वरिष्ठ नागरिकों में की जा सकती थी. युवाओं में अलस्सुबह उठने, जूते के तस्मे बाँधने और दौड़ लगाने का न धीरज था, न जरूरत. वे शाम के वक्त इस अभिजात इलाके के पंचसितारा जिम में पाए जाते थे- ट्रेडमिल पर हाँफ-हाँफ कर पसीना बहाते हुए और बाद में बेशकीमती तौलियों से रगड़-रगड़ कर चेहरे को चमकाते और खूबसूरत लंबे गिलासों में गाजर-चुकन्दर का महँगा जूस पीते हुए. लवर्स पार्क इनके दादा-दादियों से आबाद रहता था.
सुबह-सबेरे जब सूरज अपनी ललाई छोड़कर गुलाबी चमक ले रहा होता, छरहरी-सी दिखती एक अधेड़ औरत अपनी बिल्डिंग के गेट से इस पार्क में दाखिल होती, चार-पाँच चक्कर लगाती और बैठ जाती. अकेली. बेंच पर. वह बेंच जैसे खास उसके लिए रिज़र्व थी. तीन ओर छोटे पेड़ों का झुरमुट और सामने बच्चों का स्लाइड और झूला, जिसके इर्द-गिर्द जापानी मिट्टी के रंगबिरंगे सैंड पिट खाँचे बने थे; जहाँ बच्चे अगर स्लाइड से गिर भी जाएँ तो उनकी कुहनियाँ और घुटने न छिलें. यह बेंच उसने अपने लिए क्यों चुनी थी वह खुद भी नहीं जानती थी. शायद इसलिए कि यह बेंच सैर करने आने वाले बाशिंदों के रास्ते में नहीं पड़ती थी और वह इत्मीनान से सैर पूरी करने के बाद घुटने मोड़कर प्राणायाम की मुद्रा पर आ सकती थी और भ्रामरी प्राणायाम का ओssम् करते वक्त भी सैर करते लोगों की बातचीत उसकी एकाग्रता में खलल नहीं डालती.
तीन महीनों से लगभग रोज़ ही वह इस वक्त तक बेंच पर अपना आसन जमा चुकती थी. उस दिन आँखें मूँदे हुए लंबी साँस भीतर खींचते अचानक जब उसने हाथ बदला तो पाया कि दाहिनी हथेली की मध्यमा उँगली लॉक हो गई है. अक्सर ऐसा हो जाता था. उसने आँखें खोलीं और बाईं उँगलियों से उस उँगली को थोड़ा नरमाई से घुमाया तो देखा उसके सामने की रोशनी को एक सफेद आकार ने ढक लिया था. झक सफेद कुरता-पायजामा पहने वह बूढ़ा किसी साबुन कम्पनी की सफेदी का इश्तहार मालूम होता था. दोनों कनपटियों पर बस नाम भर को थोड़े से सफेद बाल. आरके लक्ष्मण के कार्टून के काले बालों पर सफेदी फिरा दी हो जैसे.
‘‘सॉरी, लेकिन इट्स नॉट द राइट वे टु डू प्राणायाम.’’ बूढ़े ने अंग्रेजी में कहा तो औरत की तंद्रा टूटी. उसने समझा कि बूढ़ा उससे कुछ कहना चाहता है.
‘‘प्लीज़ कम दिस साइड!’’ औरत ने अपनी उँगलियों को बाएँ कान की ओर ले जाकर इशारे से बताया कि सुनाई नहीं दे रहा, वे दाहिनी ओर आकर बताएँ.
थोड़ा खिसक कर बेंच पर खाली जगह पर बूढ़ा दाहिनी ओर बैठते ही बोला- ‘‘मैं रोज तुम्हें देखता हूँ, आज अपने को रोक नहीं पाया! उँगलियों की मुद्रा ऐसी होनी चाहिए...’’ बूढ़े ने तर्जनी और अँगूठे का कोण मिलाकर बताया.
‘‘ओह अच्छा! शुक्रिया!’’ औरत ने तर्जनी और अँगूठे का कोण मिलाया- ‘‘अब ठीक है?’’
‘‘यस! गुड गर्ल!’’ बूढ़े ने उसकी पीठ थपथपाई, जैसे किसी बच्चे को शाबाशी दे रहा हो. फिर उठने को हुआ कि तब तक फिर औरत की उँगली ने ऐंठ कर दोबारा अपने को बंद कर लिया- ‘‘ओह! यह फिर लॉक हो गई... डबल लॉक!’’
‘‘मेरी भी हो जाती थी.’’ उठते-उठते बूढ़ा फिर बैठ गया- ‘‘....कम्प्यूटर पर हर दस-बीस मिनट बाद उँगलियों को हिलाते-डुलाते रहना चाहिए. यह मॉडर्न टेक्नोलॉजी की दी हुई बीमारियाँ हैं.’’ बूढ़ा हँसा- ‘‘आर यू वर्किंग?’’
‘‘नहीं, ऐसे ही घर पर थोड़ा काम करती हूँ. लैपटॉप पर!’’ औरत ने दोबारा उँगली को आहिस्ता से खोला.
‘‘टेक केयर! ....सॉरी, तुम्हें डिस्टर्ब किया! ....चलूँ, मैंने राउंड नहीं लगाए अभी. आर यू ऑलराइट नाउ? सी यू.....!’’ बूढ़ा अपनी उम्र से ज़्यादा तेज़ चाल में सैर वाले रास्ते पर निकल गया.
अगले दिन फिर प्राणायाम करते-करते औरत की आँख खुली तो बूढ़ा सामने था. ओफ, यह पता नहीं कब से खड़ा है! औरत झेंपी, फिर सरक कर दाहिनी ओर जगह बनाई.
‘‘और....पीठ ऐसे सीधी रखो.’’ बूढ़े ने जैसे ही उसके कंधों को अपने हाथों के दबाव से पीछे किया पीठ पर दर्द की चिलक-सी उठी.
‘‘आssह!’’ उसके मुँह से आवाज़ निकली. बूढ़ा जबरदस्ती उसके योग शिक्षक की भूमिका में आ रहा है, वह खीझी.
‘‘ओह सॉरी, सॉरी! स्पॉन्डिलॉसिस है या....? बूढ़ा हँसा, जैसे उसके पीठदर्द का मखौल उड़ा रहा हो- ‘‘क्या क्या है तुम्हें इतनी सी उम्र में?’’
‘‘कुछ खास नहीं, कभी-कभी दर्द उठ जाता है!’’ औरत ने काँपते होंठों से कहा.
‘‘व्हेन ब्रेन कांट होल्ड एनी मोर स्ट्रेस इट रिलीजे़ज़ स्पाज़्म टु द बैक (जब दिमाग़ अतिरिक्त तनाव को झेल नहीं पाता तो उस जकड़न को नीचे पीठ की तरफ सरका देता है)... तब आपकी गर्दन और आपके कंधे अकड़ जाते हैं और दुखने लगते हैं. आप कंधे का इलाज करते चले जाते हैं, जबकि इलाज कंधे की जकड़न का नहीं दिमाग़ में जमकर बैठे तनाव का होना चाहिए.’’ बूढ़ा रुक-रुक कर बोला.
‘‘हूँ.’’ औरत भौंचक-सी उसे देखने लगी. यह सब इसने कैसे जाना. क्या मेरे चेहरे पर तनाव लिखा है?
औरत ने एक चौड़ी-सी मुस्कान चेहरे पर जबरन सजाकर कहा- ‘‘चेखव कहते थे....चेखव...नाम सुना है?’’
‘‘हाँ-हाँ, द ग्रेट रशियन राइटर!... क्या कहते थे?’’
‘‘डॉक्टर थे न, डायरिया के लिए कहते थे- योर स्टमक वीप्स फॉर यू..... मन उदास और बेचैन होता है तो पेट सिम्पथी में रोने लगता है.’’
‘‘ग्रेट! सच है! ...पता है, अगर बहुत नेगेटिव फीलिंग्स एक-दूसरे को ओवरटेक कर रही हों और आप उन्हें हैंडल न कर पाएँ तो एग्ज़ीमा हो जाता है....आपका स्किन बता देता है कि रुको, इतना काम-क्रोध ज़रूरी नहीं. ....और अंदर ही अंदर गुस्सा-नफरत दबाए चलो तो पाइल्स, अल्सर, ब्रेनस्ट्रोक न जाने क्या-क्या हो जाता है. सप्रेशन इज़ द रूट कॉज़ ऑफ़ ऑल सिकनेस. एंग्री पाइल्स एग्रेसिव अल्सर! तो इलाज की ज़रूरत तो इसको है इसको.’’ बूढ़े ने चलते-चलते दिमाग़ को दो उँगलियों से ठकठकाया.
औरत ने बताने की एक फ़िज़ूल-सी कोशिश की कि वह तो ठीक है, और ऐसा कुछ नहीं... पीठ और कंधों पर तो अक्सर दर्द उठ ही जाया करता है.
‘‘सॉरी, मैं बिना माँगे ज्ञान दे रहा हूँ!’’ बूढ़े ने कहा और झेंप गया.
‘‘ठीक है,’’ औरत ने अपनी मुस्कान समेटकर हाथ उठा दिया- ‘‘बाय!’’
‘‘सॉरी अगेन- कंधा दुखाने के लिए!’’
‘‘नहीं, कोई बात नहीं. नत्थिंग सीरियस.’’
अगले दिन वह औरत जब पार्क के अपने पाँच चक्कर पूरे कर बेंच पर पहुँची तो बूढ़ा पहले से बेंच पर बैठा था. उसको देखकर उसने सरककर जगह बना दी. औरत ने कहा- ‘‘नहीं आप बैठें, मैं दूसरी जगह बैठ जाती हूँ.’’
‘‘अरे, मैं तुम्हें प्राणायाम के सही पोस्चर सिखाने के लिए बैठा हूँ, और तुम... नहीं सीखना चाहतीं तो कोई बात नहीं.’’
‘‘अच्छा तो आप इस तरफ बैठ जाएँ, मुझे बाएँ कान से सुनाई नहीं देता, इसलिए...’’
‘‘अच्छा...? ओह!’’ बूढ़े ने सरक कर अपने बाईं ओर जगह बना दी.
उसके बैठते ही बूढ़े ने कहा- ‘‘उँगलियों में, कंधे में, अब कान में भी कुछ प्रॉब्लम है? इतनी कम उम्र में .....क्या उम्र है तुम्हारी? आय नो औरतों से उम्र नहीं पूछते, फिर भी....’’
‘‘पैंसठ!’’
‘‘कितनी...?’’ बूढ़ा चौंक कर बोला, जैसे उसने ठीक से सुना नहीं.
‘‘सिक्स्टी फाइव!’’ औरत ने दोहराया और कान की ओर इशारा किया- ‘‘क्या आपको भी...? वाक्य पूरा करते-करते उसने बीच में ही रोक लिया.
‘‘नहीं-नहीं, आय ऐम परफेक्ट. मुझे दोनों कानों से सुनाई देता है. तुम....आप....आप तो लगती ही नहीं...’’
‘‘नहीं, तुम ही कहिए, तुम ठीक है! आप मुझसे बड़े हैं.’’
‘‘हाँ, सिर्फ चार साल!....लेकिन आप पचास से ऊपर की नहीं लगतीं, बिलीव मी!’’
‘‘उससे क्या फर्क पड़ता है!’’
बूढ़े ने बात बदल दी- ‘‘अच्छा आप रहती कहाँ हैं?’’
‘‘यहीं सामने..’’ उसने अपनी बिल्डिंग की ओर इशारा किया.
‘‘मैं इसमें, बगल वाली बिल्डिंग में.... आप कौन से माले पर....?’’
‘‘इक्कीसवें.’’
‘‘अरे स्ट्रेंज! मैं भी वहाँ इक्कीसवें पर.... फ्लैट नं?’’
‘‘इक्कीस सौ दो!’’
‘‘डोंट टेल मी. मेरे बेटे का भी फ्लैट नंबर- इक्कीस सौ दो... और इंटरकॉम?’’
‘‘स्टार नाइन सेवन टू वन टू!’’ औरत ने मुस्कुराकर कहा- ‘‘अब ये मत कहिएगा कि फोन नंबर भी वही है!’’
‘‘अनबिलीवेबल! बस एक डिजिट का फर्क है- थ्री वन टू! ....याद रखना कितना आसान है न!’’
‘‘आपका नाम जान सकता हूँ?’’
‘‘शिवा!’’ औरत ने ऐसे कहा जैसे नाम बताने को तैयार ही बैठी थी.
‘‘शिवा मीडियम?’’ बूढ़ा हँसा.
‘‘वो क्या है?’’
‘‘नहीं, स्मॉल-मीडियम-लार्ज वाला नहीं... शिवा मीडियम फॉन्ट. मेरी पोती हिंदी फिल्मों में स्क्रिप्टराइटर है. हिंदी में संवाद लिखने के लिए यह फॉन्ट इस्तेमाल करती है.’’
‘‘अच्छा, हिंदी के बारे में मेरी इतनी जानकारी नहीं!’’ औरत फीकी हँसी हँसकर बोली- ‘‘आपका नाम...?’’
‘‘मैं आशीष कुमार. शॉर्ट फॉर्म- एके. सब एके ही बुलाते हैं. मेरा बेटा अनिरुद्ध कुमार. उसे भी उसके दफ्तर में एके ही कहा जाता है. मेरे बंगाली दोस्त मज़ाक में कहते हैं- एई के? मतलब कौन है यह? मेरे दो पोते एक पोती हैं. इक्कीसवें फ्लोर के दो फ्लैट्स को एक कर बड़ा कर लिया है. फिर भी बच्चों को छोटा लगता है. हरेक को अपने लिए अलग कमरा चाहिए. यहाँ तक कि कामवाली को भी. क्या खूब मुंबई के नक्शे हैं....! अच्छा, आपके घर में कौन-कौन हैं?’’
यह बूढ़ा उसके बारे में इतना क्यों जानना चाह रहा है? इसके घर में इतने सदस्य कम हैं क्या?
‘‘नहीं बताना चाहें तो कोई बात नहीं.... मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया.’’
‘‘मेरी तीन बेटियाँ हैं. दो बाहर जॉब करती हैं- एक दिल्ली में, एक न्यू जर्सी में. छोटी मेरे साथ है यहाँ!’’
‘‘और आपके पति?’’
‘‘हैं...’’ वह कुछ अटकी, फिर बोली- ‘‘पर नहीं हैं.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘वह मेरे साथ नहीं....’’
***
क्रमश....